________________
३५३ .. श्री तत्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध अमूर्त आत्मा में रस गंध पर्श या वण' ही । दर्शन ज्ञान स्वरूपी है यह पुदगल से संबंध नहीं ॥
(१९) तात्विकं च सुखं तेषां ये भन्यन्ते ब्रुवन्ति च ।
एवं तेषामहं मन्ये महती भ्रांतिरुद्गता ॥१९॥ १९. ॐ ह्रीं इन्द्रियादिविषयेतात्त्विकसुखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
सच्चिदानन्दोकस्स्वरूपोऽहम् ।
मानव जब जब विकल्प होते हैं चित आकुलता मय रहता । वास्तविक न सुख है उनमें सच्चा सुख कभी न होता || उस सुख में सुख की गणना करते रहते दुख पाते । यह भारी भूल जीव की सुख सच्चा कभी न पाते || चिद्रूप शुद्ध तो आस्रव के पार सतत रहता है ।
जो नहीं जानता इसको वह आस्रव में बहता है ॥१९॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०) विमुच्य रागादि निजं तु निर्जने पदे स्थितानां सुखमत्र योगनिाम्।
विवेकिनां शुद्धचिदात्मचेतसां विदां यथास्यान हि कस्यचित्तथा ॥२०॥ अर्थ- इसलिये जो योगीगण बाह्य आभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निरुपद्रव एकांत स्थान में निवसा करते हैं। विवेकी हित अहित के जानकार हैं। शुद्धचिद्रूप में रक्त हैं। और विद्वान हैं। उन्हें यह निराकुलतामय सुख प्राप्त होता है। उनसे अन्य किसी भी मनुष्य को नहीं । २०. ॐ ह्रीं निर्जनापदनिवासविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । __ अचलविविक्तात्मोकलस्वरूपोऽहम् ।
. मानव योगी जन बाह्याभ्यंतर तजते हैं सभी परिग्रह । निरुपद्रव थल एकान्त में करते निवास हो निस्पृह ॥