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३४५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
पंचेन्द्रिय के भोगों की रुचि प्रतिपल बढ़ती जाती है लौकिक सुख की अभिलाषा ही ऊपर चढ़ती आती ह ||
चिद्रूप शुद्ध दुख का घर आकुलता रहित अनूठा । पर चेतन मूढ़ अभी तक चिद्रूप शुद्ध से रूठा ॥६॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(19) निगोते गूथकीटे पशुनृपतिगणे भाववाहे किराते,
सरोगे मुक्तरोगे धनवति विधने वाहनस्थे च पद्ने ।
युवादौ बालवृद्धे भवति हि खसुखं तेन किं यत् कदाचित्, सदा वा सर्वदैवैतदपि किल यतस्तन्न चाप्राप्तपूर्वम् ||७||
अर्थ- निगोदिया जीव, विष्टा की कीड़ा, पशु, राजा, भार वह करनेवाले, भील, रोग नीरोगी, धनवान, निर्धन, सवारी पर घूमने वाले, पैदल चलनेवाले, युवा, बालक, वृद्ध और देवों मैं जो इन्द्रिय से उत्पन्न सुख कभी वा सदा देखने में आता है। उससे क्या प्रयोजन ? अथवा वह सर्वथा ही बना रहे, तब भी क्या प्रयोजन? क्योंकि वह पहिले कभी नहीं प्राप्त हुआ, ऐसा निराकुलामय सुख नहीं है। अर्थात् इन्द्रियं से उत्पन्न सुख विनाशीक है और सुलभरूप से कहीं न कहीं कुछ न कुछ अवश्य मिल जाता है । परन्तु निराकुलतामय सुख नित्य अविनाशी है और आत्मा को बिना विशुद्ध किये कभी प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये इन्द्रिय सुख कैसा भी क्यों न हो, वह कभी निराकुलतामय सुख की तुलना नहीं कर सकता ।
७. ॐ ह्रीं निगोतगूथकीटादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
सनातनस्वरूपोऽहम् ।
मानव
जीवों के जो भी सुख हैं वे इन्द्रिय सुख है नश्वर । देवों के इन्द्रिय सुख भी होते हैं सदा विनश्वर ॥ उनसे क्या हमें प्रयोजन वे नहीं निराकुल सुख हैं I सुख का आभास मात्र हैं वास्तव में तो वे दुख हैं ॥ अविनाशी नित्य अनाकुल सुख आत्मा में मिलता है । आत्मा को शुद्ध बनाए बिन कभी न उर झिलता है ॥