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________________ ३४४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन भोगाकाँक्षारूप विभावी परिणामों को किया न त्याग । दृढ़ वैराग्य तथा संवेग भाव से किया नहीं अनुराग || शाश्वत सुख पूर्ण निराकुल पर द्रव्यों से ना मिलता । हो इष्ट समागम शुभमय उत्तम तो भी ना मिलता ॥ षडऋतु नृप कृपा कीर्ति से यह प्राप्त नहीं होता है । अन्तर्मन व्याकुल रहता सुख कभी नहीं होता है | चिद्रूप शुद्ध के बिन जब संसार लगे यह सूना । तब समझो निज अंतर में होता सुख दूनादूना ॥५॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याा समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (६) पुरे ग्रामेऽटव्यां नगशिरसि नदीशादिसु तटे, मठे दर्या चैत्यौकसि सदसि रथादौ च भवने । महादुर्गे स्वर्गे पथनभसि लतावनभवने, स्थितो मोही न स्यात् परसमयरतः सौख्यलवभाक् ॥६॥ अर्थ- जो मनुष्य मोह से मूढ़ और पर समय में रत हैं-पर पदार्थो को अपनाने वाले हैंवे चाहे पुर, पर्वत के अग्रभाग, समुद्र नही आदि के तट मठ, गुफा, चैत्यालय, सभा रथ, महल, किले स्वर्ग, भूमि, मार्ग, आकाश, लतामंडप और तंबू आदि स्थानों में किसी स्थान पर निवास करें, उन्हें निराकुलतामय सुख का कण तक प्राप्त नहीं हो सकता। अर्थात् मोह और पर द्रव्यों का प्रेम निराकुलतामय सुख का बाधक है। ६. ॐ ह्रीं पुरग्रामअटवीमठचैत्याद्योकसरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतनिजज्ञानोकस्स्वरूपोऽहम् । मानव पर समयी मूढ़ मोह से पर द्रव्यों को अपनाते । पुर ग्राम महल स्वर्गों में रहते फिर भी दुख पाते ॥ चाहे जी जहाँ रहें पर सुख का कण भी न मिलेगा । जब तक है मोह महातम सुख कैसे ह्रदय झिलेगा ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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