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३३४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन
राग द्वेष के तृण कंटक बीने बिन आत्म न होता स्वच्छ । संशय अरु एकान्त विपर्यय ज्ञान भाव दुखमय प्रत्यक्ष ||
(२१) तस्माद्विविक्तसुस्थानं ज्ञेयं संक्लेशनाशनम् । मुमुक्षुयोगिनां मुक्तेः कारणं भववारणम् ॥२१॥
२१. ॐ ह्रीं संक्लेशनाशनविविक्तस्यानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निश्चलात्मनिवासोऽहम् । हरिगीतिका
मोक्ष अभिलाषी पुरुष एकान्त का आश्रय करे । दुख विनाशक ध्यान निज चिद्रूप का प्रतिक्षण करे || दुक्ख क्षय सक्षम सदा एकान्त का ले आश्रय । मोक्ष का कारण यही है यही दाता शिव निलय ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥२१॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपलब्ध्यै निर्जनस्थानाश्रयण प्र्पादकषोडशाध्याये निजानन्दधामनिवासस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य
छंद भुजंगी
स्वभावों को अपने ह्रदय में सजाना
सतत शुद्ध भावों की वंशी बजाना 11
अपना 1
अगर तुमको पाना है चिद्रूप विभावों को उर में न अब तुम अगर चाहिए तुमको संवर की महिमा |
बिठाना ||
तो आस्रव को घर में
कभी भी न लाना ॥ हरना है तुमको | तो फिर गीत भी निर्जरा के ही गाना ||
अगर बंध कर्मों के