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३३३ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
यथाख्यात् चारित्र प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय निज ध्यान । इसी ध्यान से मिलात है कैवल्य और मिलता निर्वाण ॥
शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१८॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१९) जायते मनसः सस्पंदस्ततो रागादयोऽखिलाः । तेभ्यः क्लेशो भवेत्तस्मान्नाशं याति विशुद्धता ॥१९॥ १९. ॐ ह्रीं मनः परिस्पन्दरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
टङ्कोत्कीर्णज्ञानोऽहम् । हरिगीतिका
नाश होती है विशुद्धि चिन्तवन चिद्रूप बिन । बिना निज चिद्रूप चिन्तन ध्यान को भी शून्य गिन ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१९॥
ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०) तया बिना न जायेत शुद्धचिद्रूप चिंतनम् ।
विना तेन न मुक्तिः स्यात् परमाखिलकर्मणाम् ॥२०॥ २०. ॐ ह्रीं क्लेशरहितविशुद्धिविक्लपरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शुद्धावबोधस्वरूपोऽहम् ।
हरिगीतिका
कर्म क्षय से मोक्ष होता वह कभी होता नहीं । कर्म का ही बंध बढ़ता कर्म क्षय होता नहीं ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥२०॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।