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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
जैसे द्रव्य स्वतंत्र सभी हैं वैसे ही मैं पूर्ण स्वतंत्र । कोई भी परतंत्र नहीं है मैं भी कभी नहीं परतंत्र ॥
भव वृक्ष पर विषफल लगे हैं इन्हें अब तोडूं नहीं । मोक्षफल की प्राप्ति के हित हाथ अब जोडूं नहीं || तत्त्व ज्ञान तरंगिणी पा ह्रदय पुलकित हो गया । स्व परिणति को देखते ही ज्ञान उर में झिल गया ॥ ॐ ह्रीं श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि. । भाव अर्घ्य बना गुणों के पद अनध्यं महान लूं । अष्टकर्मों से रहित हो सिद्ध स्वपद विहान लूँ ॥ तत्त्व ज्ञान तरंगिणी पा ह्रदय पुलकित हो गया स्व परिणति को देखते ही ज्ञान उर में झिल गया ॥
ॐ ह्रीं श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. ।
महा अर्घ्य छंद रोला
अपने निज परमात्मा को ही देखो भालो ज्ञानांजन आँजो नयनों में निज सुख पालो || बहुत समय से रही रतौंधी की बीमारी । भेद ज्ञान की औषधि पी निज आत्म संभालो ॥ जड़ पुद्गल तन से ममत्व हो तो दुख ही दुख । दुख हरने को निज स्वरूप में निज को ढालो || राग द्वेष की पवन सतत पीड़ा देती है । आत्मस्थ हो अनुभव रस निर्मित चरु खालो ॥ भेदज्ञान की सुविधि तुम्हारे हीं भीतर है । निज पुरुषार्थ जगाकर निज हित उसे निकालो ॥ एक शुद्ध चिद्रूप शक्ति ही सुखदायक है । इससे जो विपरीत भाव है उसे हटा लो ॥ दोहा
महा अर्घ्य अर्पित करूं करूं स्वयं का ज्ञान । तत्त्वज्ञान की शक्ति ले करूं आत्म कल्याण