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३२९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
राग जनित या प्रशम जनित आनंद अतीन्द्रिय है न कभी । निजात्मोत्थ आनंद अतीन्द्रिय है सम्यक् आनंद सभी ॥
१२. ॐ ह्रीं बाह्यसङ्गकारणसुखमान्यतारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । स्वाधीनानन्दनिलयोऽहम् । हरिगीतिका
स्वपर भेद न जानते हैं मुग्ध हैं परभाव में । बाह्य संगति से सुखी जो मानते निज भाव में ॥ तत्त्ववेत्ता त्याग पर संगति लगे निज ध्यान में । नहीं पर सहवास है वे सुखी हैं निज ज्ञानमे ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१२॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१३) अवमौदर्यात्साध्यं विविक्तशय्यासनाद्विशेषेण ।
अध्ययनं सध्यानं मुमुक्षुमुख्याः परं तपः कुर्युः ॥१३॥
अर्थ- जो पुरुष मुमुक्षुओं में मुख्य हैं। बहुत जल्दी मोक्ष जाना चाहते हैं। उन्हें चाहिये कि वे अवमौदर्य और विविक्ताश्यायसन की सहायता से निष्पन्न ध्यान के साथ अध्ययन स्वाध्याय रूप परमतप का अवश्य आराधन करें ।
१३. ॐ ह्रीं अवमौदर्यादितपविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानामृताहारोऽहम् । हरिगीतिका
जो मुमुक्षु शीघ्र पाना चाहते हैं मोक्ष पद 1 करें अवमौदर्य तप अरु विविक्त शैय्यासन सुतप ॥ ध्यान के संग अध्ययन स्वाध्याय तप आराधना । तभी होती पूर्ण उनकी मुक्ति सुख की साधना ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१३॥