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________________ ३२८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन पर वश होकर पाप किए बहु निज वश कभी न होता पाप। पर द्रव्यों से प्रीत लगाई बिन निज प्रीत मिला संताप || शान्ति का अनुभव न होगा विकल्पों के जाल से । सुख कहाँ से प्राप्त हो उलझा है भव जंजाल से || शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१०॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (११) बाह्यसंगतिसंगस्य त्यागे चेन्मे परं सुखम् । अंतःसंगतिसंगस्य भवेत् किं न ततोऽधिकम् ॥११॥ अर्थ- जब मुझे बाह्य संगति के त्याग से ही परम सुख की प्राप्ति होती है, तब अंतरंग संगति के त्याग से तो और भी अधिक सुख मिलेगा । ११. ॐ ह्रीं परद्रव्यनाशकारणशोकरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । __ अक्षयचिन्मात्रोऽहम् । हरिगीतिका बाहय संगति त्यागने से परम सुख होता मुझे । तज कुसंगति अंतरंगी मोक्ष सुख होगा मुझे ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥११॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१२) बाहयसंगतिसंगेन सुखं मन्येत मूढधीः । तत्यागेन सुधीः शुद्धचिद्रूपध्यानहेतुना ॥१२॥ अर्थ- जो पुरुष मुग्ध हैं अपना पराया जरा भी भेद नहीं जानते । वे बाह्य पदार्थो की संगति से अपने को सुखी मानते हैं। परन्तु जो बुद्धिमन हैं, तत्त्वों के भलें प्रकार वेत्ता हैं, वे यह जानते हैं कि बाह्य पदार्थों की संगति का त्याग ही शुद्धचिद्रूप के ध्यान में कारण हैं। उसक त्याग से ही शुद्धचिद्रूप का ध्यान हो सकता है। अतः वे बाह्य पदार्थो क्रा सहवान न करने से ही अपने को सुखी मानते हैं
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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