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३२६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन जैसे घट से दीप नहीं उत्पन्नित होता है जानो । किन्तु प्रकाशित करता धट को दीपक का स्वभाव मानो॥
(८) संगत्यागो निर्जनस्थानकं च तत्वज्ञानं सर्वचिंताविमुक्तिः ।
निवार्धत्वं योगरोधो मुनीनां मुक्तयै ध्याने हेतवोऽमी निरुक्ताः ॥८॥ अर्थ- बाह.य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग, एकांत स्थान तत्वों का ज्ञान समस्त प्रकार की चिन्ताओं के रहितपना, किसी प्रकार की बाधा का न होना और मन वचन काय का वश करना, ये ध्यान के कारण हैं। और इन्हीं का आश्रय करने से मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। ८. ॐ ह्रीं विभावस्वभावपरिणामविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
समृद्धोऽहम् ।
हरिगीतिका बाह्य अभ्यंतर परिग्रह त्याग दो एकान्त हो । तत्त्व का हो ज्ञान सम्यक् नहीं चिन्ता पास हो | नहीं कोई भी हो बाधा मन वचन तन स्ववश हो । ध्यान कारण मुख्य हो अरु नहीं मुनि कुछ विवश हो ॥ इन्हीं का जो आश्रय करते वही पाते है मोक्ष । ध्यान निज चिद्रूप का कर पूर्णतः पाते हैं सौख्य ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है ।
तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥८॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
विकल्पपरिहाराय संगं मुञ्चन्ति धीधनाः ।
संगतिं च जनैः सार्द्ध कार्य किंचित्स्मरन्ति न ९॥ अर्थ- जो मनुष्य बुद्धिमान हैं। स्व और पर के स्वरूप के जानकार होकर अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं। वे संसार के कारण स्वरूप विकल्पों का नाश करने के लिये बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देते हैं। दूसरे मनुष्यों के