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३२५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
ज्ञेय वस्तु से ज्ञान नहीं होता है निश्चित लो यह जान । ज्ञेय वस्तु को ज्ञान जानता ज्ञान स्वभाव महा बलबान ॥
६. ॐ ह्रीं रागत्यागकारणविविक्तशयनासनादितपविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
एकत्वधामोऽहम् | गीतिका
बाहय तप में विविक्त शैय्यासन सुखद होता महान । मोह का यह नाश करता गुण प्रकाशक है प्रधान || शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥६॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(७)
काचिच्चिता संगति : केनचिच्च रोगादिभ्यो वेदना तीव्रनिद्रा | प्रादुर्भूतिः क्रोधमानादिकानां मूर्च्छा ज्ञेया ध्यानविध्वंसिनी च ॥७॥
अर्थ- स्त्री पुत्र आदि की चिन्ता प्राणियों के साथ संगति रोग आदि से वेदना तीव्र निद्रा और क्रोध मान आदि कषायों की उत्पत्ति होना मूर्च्छा हैं। और इस मूर्च्छा से ध्यान का सर्वथा नाश होता है ।
७. ॐ ह्रीं निराकुलानन्दमन्दिरशुद्धचिद्रूपाय नमः |
निर्मलसुखोऽहम् । हरिगीतिका
परिवार चिन्ता प्राणियों की कुसंगति अरु रोग दुख । तीव्र निद्रा क्रोध आदि विषम मूर्छा बहुत दुख ॥ किन्तु ऐसी मूर्छा से ध्यान का होता है नाश । ध्यान बिन होता नहीं चिद्रूप शुद्ध परम प्रकाश ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ||७|| 'ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।