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३०२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन
मिली संयम की तरणी तो तुम्हें कोई नहीं भय है । भवोदधि पार जाएगी ह्रदय में पूर्ण निश्चय है ॥
अर्ध्यावलि
पंचदशम अध्याय
शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए परद्रव्यों के त्याग का उपदेश (9) गृहं राज्यं मित्रं जनकजननीं भ्रातृपुत्रं कलत्रंसुवर्ण रत्नं वा पुरजनपदं वाहनं भूषणं वै । खसौख्यं क्रोधाद्यं वसनमशनं चित्तवाक्कायकर्म
त्रिधा मुंचेत्प्राज्ञः शुभमपि निज शुद्धचिद्रूपलब्ध्यै ॥१॥ अर्थ- बुद्धिमान मनुष्यं को शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के लिये शुभ होने पर भी अपने घर, राज्य, मित्र, पिता, माता, भाई, पुत्र, स्त्री, सुवर्ण, रत्न, पुर, जनपद, सवारी, भूषण, इन्द्रियजन्य सुख, क्रोध, वस्त्र और भोजन आदिक मन वचन काय से सर्वथा त्याग देना चाहिये ।
१. ॐ ह्रीं गृहराज्यमित्रजनकादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । स्वसौख्यरत्नालयस्वरूपोऽहम् ।
छंद हरिगीतिका
प्राप्ति निज चिद्रूप की जो चाहते सम्यक् यथा । मन वचन तन पूर्वक परभाव तजते सर्वथा ॥ राज्य घर माता पिता सुत भ्रात मित्र कलत्र सब । स्वर्ग जनपद रत्नभूषण सवारी दें त्याग सब ॥ ध्यान इनकी ओर जाता अतः ये बाधक सभी । शुद्ध निज चिद्रूप पाने को तजो इनको अभी || शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।