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२९८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन रागिनी राग की हो तो अंधेरा हो जाता । ज्ञान की भावना हो तो उजाला हो जाता ॥
समभावी रोते न कभी भी वे सम होकर सदा हँस रहे । छोड़ो शोक मनाओं खुशियां आने पर भी जाने पर भी ॥ जन्म मरण कर्मानुरूप है नहीं छूटता यह पल भर भी । वही छूटते ज्ञान कसौटी पर जो निज को सतत कस रहे। पाप पुण्य की परिभाषाएँसबकी अलग अलग होती है। पाप पुण्य से रहित दशाएँ ही कर्मो का मल धोती है | कर्म रहित जो हो जाते हैं वे नूतन आनंद कर रहे । सिद्ध स्वपद के जो अधिपति हैं वे ही शाश्वत सुख पाते हैं || जो कर्मो के जाल बुन रहे वे सदैव ही दुख पाते हैं । समभावी बन जाओ देखो भीतर कोई अब न विष रहे || वे ही धन्य हुए हैं जग में हर्ष शोक से जो विरहित है । आत्म ध्यान तल्लीन सदा है त्रैकालिक ध्रुव लक्ष्य सहित है ॥ निज स्वरूप से ही है परिचय नहीं राग में रंच बस रहो। एक शुद्ध चिद्रूप शक्ति का स्वामी चिदानंद चेतन है || परम अहिंसा रूप यही है एकमात्र ज्ञायक चेतन है |
ऐसा कुछ कर जाओ जिससे इस त्रिभुवन में सदा यश रहो॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समनित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. ।
आशीर्वाद
दोहा एक शुद्ध चिद्रूप ही अपना शुद्ध स्वभाव । रागादिक का नाश कर प्रगटाता निज भाव ॥
इत्याशीर्वाद :