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________________ २३७ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पंचाचारी गुण छत्तीस सहित होते आचार्य महान । संघव्यवस्था के अधिपति हैं आत्म ध्यान में रत श्रीमान॥ वीरछंद .. जो चिद्रूप ध्यान में हैं अनुरक्त तपस्वी उत्तम मात्र । सभीचीन पथ के अनुगामी भी गुणी तथा स्तुत्य सुपात्र॥ अतः तत्व ज्ञानी विरलें है जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ||१८॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१९) उत्सर्पणापसर्पणकालेऽत्राद्यन्तवर्जिते स्तोकाः । चिद्रक्ता व्रतयुक्ता भवन्ति केचित्कदाचिच्च ॥१९॥ अर्थ- इस अनादि अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में शुद्धचिद्रूप के ध्यानी और व्रतों के धारक बहुत ही कम मनुष्य होते हैं। और वे भी कभी किसी समय प्रतिसमय नहीं । १९. ॐ ह्रीं उत्सर्पिण्यवसर्पणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतोऽहं । उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल प्रवाह अनंत अपार | .. व्रतधारी चिद्रूप शुद्ध के ध्यानी विरले करो विचार || अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१९॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२०) मिथ्यात्वादिगुणस्थानचतुष्के संभवन्ति न । शुद्धचिद्रूप के रक्ता वतिनोपि कदाचन ॥२०॥ अर्थ- मिथ्यात्व गुण स्थान से लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान पर्यन्त जीव कभी शुद्ध चिद्रूप के ध्यानी और व्रती नहीं हो सकते ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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