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२३६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन दर्शन ज्ञान चरित्र स्वरूपीमहिमामय हैं श्री अरहंत । केवल ज्ञान सूर्य के स्वामी त्रिभुवन वंदित श्री भगवंत ||
भरत क्षेत्र में उत्पन्नित मनुजों में होते दोषालीन । अथवा समझो नहीं कहीं होते हैं ये निज ध्यानालीन ॥ अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१६॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१७) महाव्रतधराः धीराः सति चात्यंतदुर्लभाः । तत्वातत्वविदस्तेषु चिद्रक्तोऽत्यंतदुर्लभः ||१७||
अर्थ- अणुव्रतधारी भी हों तो धीर वीर महाव्रतधारी दुर्लभ हैं। यदि वे भी हों तो तब अतत्वों के जानकार बहुत कम हैं। यदि वे भी प्राप्त हो जायं तो शुद्धचिद्रूप में रत मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ है ।
१७. ॐ ह्रीं दुर्लभमहाव्रतादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
सदाशिवस्वरूपोऽहं ।
अणुव्रत धारी हों भी तो मुनि महाव्रती अति दुर्लभ हैं । मुनि भी हों तो तत्त्व रसिक युत बहु श्रुत ज्ञानी दुर्लभ हैं। अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१७॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१८) तपस्विपात्रविद्वत्सु गुणिसद्गतिगामिषु ।
वंद्यस्तुत्येषु विज्ञेयः स एवोत्कृष्टतां गतः ॥१८॥
अर्थ- जो महानुभाव शुद्धचिद्रूप के ध्यान में अनुरक्त हैं. वे ही तपस्वी उत्तम पात्र विद्वान गुणी समीचीन मार्ग के अनुगामी और उत्तम बंदनीय स्तुत्य मनुष्यों में उत्कृष्ट हैं। १८. ॐ ह्रीं सद्गतिगाम्यादिजनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अभेदचिद्रूपोऽहं ।