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________________ २२१ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जड़ चेतन जितने पदार्थ हैं मेरा उनसे क्या संबंध । मैं तो मोक्ष स्वरूपी चेतन मेरे भीतर एक न बंध ॥ जयमाला ताटक प्राप्त करूं अरहंत अवस्था जिन सर्वज्ञ दशा पाऊं | शुद्ध अनंत चतुष्टय रूपी अविनाशी संपति पाऊं || निरावरण साक्षात् मोक्ष का कारण आत्म स्वसंवेदन । अनुभव रस निर्मित चरु पाकर क्षय कर दूं भव के बंधन॥ गुण अनंत के नक्षत्रों का कभी न हो फिर उल्कापात | आत्म प्रदेशों ने अनंत गुण रक्खे हैं अपने में सात || इस अलंध्य भव सागर को भी जीत लिया है मैंने आज। निज में निज के द्वारा निजने निज कासफल किया है काज॥ आत्मोत्पन्न सौख्य का सागर स्वसंवेद्य परमात्म स्वरूप | दुलर्भता से प्राप्त हुआ है आज मुझे सहजात्म स्वरूप ॥ यह प्रधान अध्यात्म भावना दुर्लभता से आती है । जब निजात्मा की निज महिमा यह निजात्मा ही गाती है। मैं अध्यात्म शिरोमणि मुनिवर कुन्द कुन्द का अनुयायी। अमृत पायी आज हुआ हूं कल तक तो था विषपायी ॥ यह प्रक्रिया आत्म चिन्तन की प्रतिपल प्रतिक्षण है सक्रिय । मैं अपने में जागरूक हूं पर में हूं सदैव निष्क्रिय || अब तो भाव मरण होने का अवसर पास नहीं आता | . अचलित हूं अपने स्वभाव में कोई त्रास नहीं पाता || ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जयमाला पूर्णार्घ्य नि. । आशीर्वाद . परम शुद्ध चिद्रूप ही शिव सुख वर्षा स्रोत । महाअर्घ्य अर्पण करूं होऊ ओतः प्रोत ॥ __ इत्याशीर्वाद :
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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