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२०८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी दशम अध्याय पूजन बुझ जाती है अग्नि बिना ईधन के ज्यों देखो तत्काल | मैं भी कर्म रहित हो करके पाऊंगा शिवसौख्य विशाल ॥
अर्ध्यावलि
दशम अध्याय शुद्ध चिद्रूप के ध्यानार्थ अहंकार . ममकारता के त्याग
(१) निरंतरमहंकारं मूढाः कुर्वन्ति तेन ते ।
स्वकीयं शुद्धचिद्रूपं विलोकंते न निर्मलं ॥१॥ अर्थ- दृढ पुरुष निरंतर अहंकार के वश रहते हैं। देहादि पर पदार्थों में आत्म बुद्धि किये हुए हैं, इसलिये अतिशय निर्मल अपने चिद्रूप की ओर वे जरा भी नहीं देखने पाते । १. ॐ ह्रीं स्वकीयनिर्मलशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ब्रह्मालयस्वरूपोऽहम् ।
छंद सरसी सतत निरंतर अहंकार वश रहते अज्ञानी । अपने आगे नहीं किसी का समझें र्दुध्यानी ॥ अतः शुद्ध चिद्रूप स्व निर्मल देख नहीं पाते । निज चिद्रूप शुद्ध के इच्छुक ही इसको पाते ॥ जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है ।
जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥१॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२) देहोऽहं कर्मरूपोऽहं मनुष्योऽहं कुशोऽकृशः ।
गौरोऽहं श्यामवर्णोऽहमद्विजोऽहं द्विजोऽथवा ॥२॥ अर्थ- मैं देह स्वरूप हूं, कर्म स्वरूप हूं, मनुष्य हूं, कृश हूं, स्थूल हूं, गोरा हूं, काला हूं, ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रिय वैश्य आदि हूं ब्रह्मण हूं, मूर्ख हूं, ।