________________
१८
जिनेन्द्र स्तुति
छंद-गीतिका अंत भव का निकट आया आपके दर्शन किये । पुष्प सम्यक् ज्ञान के प्रभु आपने मुझको दिये ॥ सदाचारी आचरण हे प्रभु सिखाया आपने । धर्म श्रावक तथा मुनि का बताया प्रभु आपने ॥ आपका उपकार स्वामी भूल सकता हूं नहीं । मिला सत्पथ अब कुपथ पर कभी जा सकता नहीं | शरण पाकर आपकी मैं तत्त्व निर्णय करूँगा । नाथ समकित प्राप्त करके मोह भ्रम तम्र हरूँगा | आज उर अम्बुज सहज जिन रवि किरण पाकर खिला। जिन बिम्ब दर्शन का सुफल हे नाथ अब मुझको मिला।
अभिषेक स्तुति मैंने प्रभु के चरण पखारे । जनम, जनम के संचित पातक तत्क्षण ही निरवारे ११॥ प्रासुक जल के कलश श्री जिन प्रतिमा ऊपर ढारे । वीतराग अरिहंत देव के गूंजे जय जय कारे ॥२॥ चरणाम्बुज स्पर्श करत ही छाये हर्ष अपारे । पावन तन मन, नयन भये सब दूर भये अंधियारे ॥३॥
करलो जिनवर की पूजन करलो जिनवर की पूजन, आई पावन घड़ी।
___आई पावन घड़ी मन भावन घड़ी।।१।। दुर्लभ यह मानव तन पाकर, कर लो जिन गुणगान।
___ गुण अनन्त सिद्धों का सुमिरण, करके बनो महान।।करलो.।।२।। ज्ञानावरण, दर्शनावरणी, मोहनीय अंतराय।
आयु नाम अरु गोत्र वेदनीय, आठों कर्म नशाय।।करलो.।।३।। धन्य धन्य सिद्धों की महिमा, नाश किया संसार। . निज स्वभाव से शिवपद पाया, अनुपम अगम अपार।।करलो.।।५।। रत्नत्रय की तरणी चढ़कर चलो मोक्ष के द्वार।
शुद्धातम का ध्यान लगाओ हो जाओ भवपार||करलो.॥६॥