________________
१९७ _ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान ज्ञानमयी देदीप्यमान दीपक की ज्योति प्रकाश करूं । संशय विभ्रम मिथ्यातम की अब प्रभु सत्ता नाश करूं || चिद्रूप शुद्ध ही शिव. सुखकारी पाऊं ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१४॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(१५) स्वाधीनं च सुखं ज्ञानं परं स्यादात्मचिन्तनात् ।
तन्मुक्त्वा प्राप्तुमिच्छंति मोहतस्यतद्विलक्षणम् ॥१५॥ अर्थ- इस आत्मा के चितवन से शुद्धचिद्रूप के ध्यान से निराकुलता रूप सुख और उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। परन्तु ये मूढ़ जीव मोह के वश होकर आत्मा का चिंतवन करना छोड़ देते हैं और उससे विपरीत कार्य जो कि अनंत क्लेश देने वाला है कर निकलते
१५. ॐ ह्रीं स्वाधीनसुखज्ञानस्वरूपाय नमः ।
निजालयस्वरूपोऽहम् । आत्मा का ही चिन्तवन सतत उत्तम है । चिदू प शुद्ध स्वाधीन ध्यान उत्तम है ॥ पर मूढ़ मोह वश शुद्ध ध्यान तज देता । विपरीत कृत्य कर महा क्लेश ही लेता ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१५॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(१६) यावन्मोहो बली पुंसि दीर्घसंसारतापि च ।
न तावत् शुद्धचिद्रूपे रुचिरत्यंचनिश्चला ॥१६॥ अर्थ- जब तक इस आत्मा के साथ महाबलवान मोहनीय कर्म का संबंध है और दीर्घ संसारता-चिरकाल तक संसार में भ्रमण करना बाकी है। तब तक इसका कभी शुद्धचिद्रूप में निश्चल रूप से प्रेम नहीं हो सकता ।