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१९६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन जब तक अज्ञान ह्रदय में शिव पथ न प्राप्त हो सकता।
बिन ज्ञान भाव के कोई शिवसुख न व्याप्त हो सकता ॥ अर्थ- मोह के फंद में पड़ कर परद्रव्यों की चिंता और उन्हें अपनाने से प्रथम तो मैंने संसार में परिभ्रमण किया। और फिर मेरे पश्चात् यह समस्त जनसमूह घूमा। इसलिये जो महापुरुष पर द्रव्यों से ममता छोड़कर चिदानंद स्वरूप निज द्रव्य में बिहार करने वाला है निज द्रव्य का ही मनन स्मरण ध्यान करने वाला है, उस महात्मा को मैं अपने चित्त में धारण करता हूं। १३. ॐ ह्रीं चिदानन्दनिलयस्वरूपाय नमः ।
____ अभयस्वरूपोऽहम् । मोहादिक से मैं पर की चिन्ता करता । पर द्रव्यों को अपना भवदधि मैं बहता ॥ जो मोह त्याग चिदू प शुद्ध ध्याता है । वह ही महात्मा बहु आदर पाता है | चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊँ ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१३॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि ।
(१४) हित्वा यः शुद्धचिद्रूपस्मरणं हि चिक्रीर्षति ।
अन्यत्कार्यमसौ चिंतारत्नमश्मग्रहं कुधीः ॥१४॥ अर्थ- जो द्रुबुद्धि जीव शुद्धचिद्रूप का स्मरण न कर अन्य कार्य करना चाहते हैं। वे चिंतामणि रत्न को त्याग कर पाषाण ग्रहण करते हैं। ऐसा समझना चाहिये । १४. ॐ ह्रीं अन्यकार्यचिकीर्षारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
बोधरत्नोऽहम् ।। दुर्बुद्धि जीव चिद्रूप शुद्ध तज देते । वे अन्य कार्यों में जीवन खो देते ॥ चिन्तामणि रत्न त्याग पाषाण उठाते । अपने चिदू प शुद्ध को मूढ़ न ध्याते ॥