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१७६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन
तत्त्वज्ञान का साबुन लाओ लो वैराग्य भाव का जल । भव भावों की सकल कलुषता धोकर अब हो लो निर्मल॥
(१२)
क्षयं नयति भेदज्ञश्चिद्रूपप्रतिघातकम् । क्षणेन कर्मणां राशिं तृणानां पावको यथा ॥१२॥
अर्थ- जिस प्रकार अग्नि देखते देखते तृणों के समूह को जलाकर खाक कर देती है। उसी प्रकार जो भेद विज्ञानी है, वह शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के नाश करने वाले कर्म समूह को क्षण भर में समूल नष्ट कर देता है। भेद विज्ञानी की आत्मा के साथ किसी प्रकार के कर्म का सम्बन्ध नहीं रहता ।
१२. ॐ ह्रीं चिद्रूपप्रतिघातककर्मराशिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । बोधप्रकाशस्वरूपोऽहम् । छंद विधाता
अग्नि का एक कण भी तृण समूहों को जलाता ज्यों । कर्म के पुन्ज क्षण भर में भेदज्ञानी जलाता त्यों ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥१२॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१३) अचिछन्नधारयाभेदबोधनं भावयेत् सुधीः । शुद्धचिद्रूपसंप्राप्त्यैसर्वशास्त्रविशारदः ॥१३॥
अर्थ- जो महानुभव समस्त शास्त्रों में विशारद है । और शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति अभिलाषी है । उसे चाहिये कि वह एकाग्र हो भेद विज्ञान की ही भावना करे। भेद विज्ञान के अतिरिक्त किसी पदार्थ में ध्यान न लगावे ।
१३. ॐ ह्रीं सर्वशास्त्रविशारदविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अनन्तज्ञानस्वरूपोऽहम् ।
शास्त्र का ज्ञान है जिनको जिन्हें चिद्रूप अभिलाषा । करें एकाग्र होकर ज्ञान यह पूरी करें आशा ॥