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१६५ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
अन्तः कोड़ा कोड़ी सागर कर्मों की स्थिति हो शेष । पुद्गल अर्ध परावर्त्तन से अधिक न भ्रमता जीव हमेशा ॥
मैं नव्हन करूं पुलकित हो हर्षित आनंदित होकर । निर्दोष निराकुल होऊं वसुकर्मों की द्युति खोकर ॥ प्रतिक्रमण तथा प्रायश्चित करके मैं शुद्ध बनूंगा । आत्मालोचन करके मैं हे स्वामी बुद्ध बनूंगा ॥ निज अन्वेषण अनुशीलन प्रतिपल प्रतिक्षण हो स्वामी । निर्मल स्वरूप के बल से हो जाऊं अंतर्यामी ॥ सम्यक्त्व बिना सिद्धि की है प्राप्ति नितान्त असंभव । है मुख्य बंध का कारण मिथ्यात्व भाव ही भव भव ॥ दर्शन ज्ञानादि चेतना से त्रैकालिक अभिन्न है चेतना कर्म फल वाली से पूरा सदा भिन्न है || चिद्रूप शुद्ध का चिन्तन ही मुझको आज सुहाया ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा का प्रभु प्रवाह अब पाया ||
ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्यं
नि. ।
आशीर्वाद
परम शुद्ध चिद्रूप का नित्य लगाओ ध्यान इसकी पावन शक्ति से पाओगे निर्वाण ॥ इत्याशीर्वाद :
भजन
जब समकित है तो डरना क्यों । मिथ्यात्व भाव अब करना क्यों ॥ जब सम्यक् ज्ञान हुआ उर में। तो भव विभ्रम उर धरना क्यों ॥ अब सम्यक् चारित्र पाया है आनंद ह्रदय में आया है । निज बुद्धि अकर्त्ता जागी है तो राग का राग भगाया है ॥ अनुभव रस की धारा पायी । तो मोहादिक विष भरना क्यों ॥