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१६४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन
अलख निरंजन के अनहद स्वर अगर न गूँजे अंतर में । पंच परावर्त्तन का कोलाहल आता बाह्यान्तर में ||
महाअर्घ्य गीत
अपने को अपने से अपने में देख ।
अपने ही आप तू अपने को लेख ॥
अपना स्वभाव ही है सबसे श्रेष्ठ । अपने चैतन्य को अपने में पेख ॥ क्षीण कर दे कोई भी रेख ||
तू
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शुद्ध चिद्रूप का ध्यान लगा तू । फिर तू उखाड़ दे कर्मो की मेख || दोहा
शुभ अशुभ आस्रव राग की न शेष रहे
अमृत सिन्धु निज आत्मा एक शुद्ध चिद्रूप । महाअर्घ्य अर्पण करूं दर्शन ज्ञान स्वरूप ॥
ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
छंद मानव
अनवरत ध्यान रत रहकर उत्कर्ष करूं मैं अपना । जितने पर भाव पास हैं उनको अब कर दूं सपना ॥ हो महाक्षमा जीवन में ऋजुता शुचि हो नस नस में । विनयांजलि शीष झुकाए चारों कषाय हों वश में || श्रामण्य शुद्ध युत संयम हो यथाख्यात भी सक्षम । परिपूर्ण अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी हो अनुपम ॥ सुस्थिति हो या दुस्थिति हो समभाव न जाने पाए । अनुभव रस की वर्षा ही निज रस प्रतिपल बरसाए ||