________________
-
१४३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान रागादिक का त्याग शुद्ध चारित्र मोक्ष का मार्ग महान । ये ही निश्चय रत्नत्रय है जो शिव सुख दाता निर्वाण ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम ।.
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१७॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१८) निश्चलं न कृतं चित्तमनादौ भ्रमतो भवे ।
चिद्रूपे तेन सोढानि महादुःखान्यहो मया ॥१८॥ अर्थ- इस संसार में मैं अनादिकाल से घूम रहा हूं। हाय! मैंने कभी भी शुद्धचिद्रूप में अपना मन निश्चल रूप से न लगाया। इसलिये मुझे अनन्त दुःख भोगने पड़े । अर्थात् यदि मैं संसार के कार्यों से अपना मन हटाकर शुद्धचिद्रूप में लगाता, तो क्यों मुझे अपार वेदना सहनी नहीं पड़ती। १८. ॐ ह्रीं भवभ्रमणरूपमहादुःखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
महाचित्सुखस्वरूपोऽहम् । मैं अनादि से भ्रमण कर रहा हूं संसार मध्य स्वामी । नहीं शुद्ध चिद्रूप ध्यान है निश्चल हुआ न मैं स्वामी || अतः बहुत दुख भोगे मैंने सही वेदना विविध प्रकार | एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान करता तो हो जाता मैं पार ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम ।
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१८॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) य याता यांति यास्यंति निर्वृति पुरुषोत्तमाः ।
मानसं निश्चलं कृत्वा स्वे चिद्रूपे न संशयः ॥१९॥ अर्थ- जो पुरुषोत्तमा महात्मा मोक्ष गये, या जा रहें हैं, और जावेंगे । इसमें कोई सन्देह नहीं उन्होंने अपना मन शुद्ध चिद्रूप के ध्यान में निश्चल रूप से लगाया, लगाते हैं और लगावेंगे।