________________
१४२
श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन जीवादिक नौ पदार्थ की श्रद्धा ही है संम्यक्त्व प्रधान |
जीवादिक नौ पदार्थ का अधिरूप यही है सम्यक् ज्ञान || विचल न हो सके । . १६. ॐ ह्रीं अविचलचिद्रूपाय नमः ।
अचलशिवोऽहम् ।
वीरछंद नहीं ध्यान से कभी चल विचल होने पाते हैं मुनिराज । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध का ध्यान ह्रदय में सतत विराज ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम |
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१६॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१७) सुखे दुःखे महारोगे क्षुधादीनामुपद्रवे ।
चतुर्विधोपसर्गे च कुर्वे चिद्रूपचिंतनम् ॥१७॥ अर्थ- सुख दुःख में, उग्र रोग और भूख प्यास आदि के भयंकर उपद्रवों में तथा मनुष्यकृत 'वकृत तिर्यचकृत और अचेतनकृत चारों प्रकार उपसर्गो में, मैं शुद्धचिद्रूप का ही चितवन करता रहूं। मुझे उनके उपद्रव से उत्पन्न वेदना का जरा भी अनुभव न हो । १७. ॐ ह्रीं क्षुधामहारोगाद्युपद्रवरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरुपद्रवस्वरूपोऽहम् ।
ताटंक सुख दुख उग्र रोग हो अथवा भूख प्यास आदिक दुख हो। होय उपद्रव महा भयंकर नर सुर त्रियंचकृत दुख हो || चेतन तथा अचेतन कृत उपसर्ग विविध हों दुख कर्ता । एक शुद्ध चिद्रूप चिन्तवन ही सर्वोत्तम सुख कर्ता ॥ सर्व उपद्रव जनित वेदना का अनुभव हो अल्प नहीं । निर्विकल्प ही रहूं सदा मैं उर में उट्टे जल्प नहीं ||