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१२६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी पचम अध्याय पूजन बाहयान्तर सर्व परिग्रह से ममता हो न ह्रदय में ।
आकिंचन भाव सतत हो हे प्रभुवर आत्म निलय में || ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचद्रूपस्यपूर्वालब्धिप्रतिपादक पञ्चमाध्यो ज्ञानभास्कराय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्घ्य
गीत दिग्पाल अब तो विभाव भाव का विनाश कीजिए । अपने स्वभाव भाव का प्रकाश लीजिए ॥ कर्मो का बंध होता है अपनी ही भूल से । बंधों को नष्ट करके ध्रुव निवास लीजिए | संयम की नाव से ही सब होते हैं भव के पार | संयम की यथाख्यात युत सुवास लीजिए | मोहादि राग द्वेष हैं 'संसार के वर्धक । सम्यक्त्व ले के इन सभी का ह्रास कीजिए || चहुंगति भ्रमण विनाश को आ जाइये निज में । मत पंच परावर्तनों का त्रास लीजिए | जीवत्व शक्ति आपके अटूट पास है । अपने स्वरूप में ही सतत आप जीजिए ॥
दोहा निरख आत्मा को हुआ चेतन परम विशाल ।
महाअर्घ्य अर्पण करूं होऊँ नाथ निहाल || ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
छंद ताटंक शुद्ध बुद्ध चिद्रूप निरंजन ज्ञानानंद स्वभावी है । सर्व विभाव शून्य निर्मल हैं यह पर द्रव्य अभावी है ||