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११० तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन पर द्रव्य त्यागता है आत्मा ऐसा कहना व्यवहार कथन । पर शुद्ध आत्मा में तो है कुछ नहीं त्याग कुछ नहीं ग्रहण॥ जो प्राणी बंधों के कारण सुन करके डर जाता है । बंधन मुक्ति प्रयास लीन हो बंध रहित हो जाता है | सत्संगति सम नहीं सम्पदा दुःसंगी सम विपद नहीं । सत्संगी सम नहीं कल्पतरु सत्संगी सम स्वपद नहीं ॥ शुद्धात्मा की चर्चा भी करने वाला धन धन प्राणी । शुद्धात्मा की चिन्ता करने वाला धन्य धन्य ज्ञानी ॥ धर्म लीन धर्मात्माओं की सुर भी सेवा करते है । कर्म भीरु भव्यात्मा ही तो मिथ्याभ्रम सब हरते है | बिना ज्ञान ग्रैवैयक तक जा किया कर्म है बारंबार । बुद्धि जागते ही पायी है वेला मैंने शिव सुखकार || आत्म निरीक्षण करते करते हो जाता है सम्यक् ज्ञान । आत्मालोचन करते करते व्रत संयम होते बलबान ॥ नित्य शुद्ध चैतन्य आत्मा चिदानंद है सिद्ध समान । आत्म स्वभाव लक्ष्य में हो तो कर्म स्वयं होते अवसान || अनुभव रस से सरावोर है भावलिंग मुनि की वाणी । अनुभव से सर्वथा रहित है द्रव्य लिंग मुनि की वाणी ॥ नित्य स्थायी ध्रुव चैतन्य बिम्ब हूँ यह निश्चय कर लूं | जीवन धन्य बनाऊं अपना सकल विभाव भाव हर लूँ ॥ एक शुद्ध चिद्रूप स्वयं ही ध्यान ध्येय ध्याता विभुवान ।
निर्विकल्प जब हो जाता है तत्क्षण होता है भगवान || ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्य नि. ।
__ आशीर्वाद एक शुद्ध चिदू प की महिमा अपरंपार । जो लेते निज लक्ष्य में हो जाते भव पार ॥
इत्याशीर्वाद :