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१०९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान इस बाह्य त्याग की महिमा तो मिथ्यादृष्टिी को आती है। निज आत्म तत्व की महिमा तो सम्यक् दृष्टि को आती है || हिंसादिक पंच पाप घेरते आए मुझको । शुष्क जप तप न कभी सौख्य कुछ लाए मुझको || बिना समकित के न संयम कभी भी होता है । स्वर्ग मिलता है मगर मोक्ष नहीं होता है | मैं हूँ उत्पाद ध्रौव्य व्यय सहित त्रिकाली सत् । अपने गुण भूल फिरा चार गति में हो भव रत ॥ आज अवसर मिला है अपनी आत्मा निरखू । गुण अनंतों से ये मंडित है इसे ही परखू ॥ शुद्ध चिद्रूप की महिमा का हआ ज्ञान नहीं । शुद्ध चिद्रूप के बिन आत्मा का भान नहीं ॥ शुद्ध चिद्रूप की छवि मुझको नहीं भाती है । इसलिए शुद्ध आत्मा न पास आती है ॥ शुद्ध चिद्रूप की पूजन का समय अब आया । मेरी निज आत्मा ने शुद्ध समय अब पाया ॥
दोहा
महाअर्घ्य अर्पित करूं पाऊं शुद्ध स्वरूप ।
ज्ञानांजन की कृपा से दिखा शुद्ध चिद्रूप ॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
वीरछंद द्रव्य दृष्टि बनने का ही उपदेश प्रथम देते सर्वज्ञ । क्षय पर्याय दृष्टि हो जाती प्राणी हो जाता तत्त्वज्ञ ॥ द्रव्य दृष्टि ही अविनश्वर है है पर्याय दृष्टि नश्वर । हैं पर्याय दृष्टि संसारी द्रव्य दृष्टि ही परमेश्वर ॥