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९८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन जब अंतर दृष्टि पूर्वक ही निज भावों का ही वेदन हो । तब क्यों बतलाओ चेतन को परभावों का कुछ बंधन हो॥
स्ममृत्या दृष्टगाव्धिभूरुहपुरीनितर्यग्नराणांतथास सिद्धांतोक्तसुराचलहदनदीद्वीपादिलोकस्थितेः । खार्थानां कृतपूवकार्यविततेः कालत्रयाणामपि,
स्वात्मा केवलचिन्मयोंऽशकलनात् सर्वोऽस्य निश्चीयते ॥५॥ अर्थ- उसी प्रकार पहिले देखे हुए पर्वत समुद्र वृक्ष नगरी गाय भैंस आदि तिर्यंच और मनुष्यों के, शास्त्रों से जाने गये मेरु ह्रद तालाब नदी और द्वीप आदि लोक की स्थिति के, पहिले अनुभूत इंद्रियों के विषय और किये गये कार्यो के, एवं तीनों कालों के स्मरण आदि कुछ अंशों से अखंड चैतन्य स्वरूप के पिंडस्वरूप इस आत्मा का भी निश्चय कर लिया जाता है। ५. ॐ ह्रीं केवलचिन्मयस्वरूपाय नमः ।
ज्ञानकल्पद्रुमोऽहम् ।। पहिले देखे पदार्थ ज्ञान में जो आते हैं । इन्द्रियों के विषय विकार ध्यान आते हैं | त्यों ही चिद्रूप शुद्ध का भी ज्ञान होता है ।
मति ज्ञानादि से चैतन्य भान होता है ॥५॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(६) द्रव्यं क्षेत्रं च कालं च भावमिच्छेत् सुधीः शुभम् ।
शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिहेतुभूतं निरन्तरम् ॥६॥ अर्थ- जो महानुभाव शद्धचिद्रूप के अभिलाषी हैं, उन्हें चाहिये कि वे उसकी प्राप्ति के अनुपम कारण शुद्ध द्रव्य क्षेत्र काल भाव का सदा आश्रय करें। ६. ॐ ह्रीं सदानन्दस्वरूपाय नमः ।
अविनाशस्वरूपोऽहम् ।