________________
९७
___.श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आगम अनुभव अरु युक्ति तीन से ही निर्णय करना होगा। भव ताप तथा संताप सभी इसके द्वारा हरना होगा | शुद्ध चिद्रूप स्मरण से सर्व सुख मिलता । मोक्ष सुख पास में आता है मोक्ष सुख झिलता ॥ शुद्ध चिद्रूप तो आनंद का ही सागर है ।
शुद्ध चिद्रूप ही तो मुक्ति सुख की गागर है ॥३॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) अन्नाश्मागुरुनागफेनसदृशं स्पर्शेन तस्यांशतः, कौमाराधकसीसवारिसदृशं स्वादेन सर्व वरं । गंधेनैव घृतादि वनसदृशं दृष्टया च शब्देन च,
कर्कर्यादि च मानसेन च यथा शास्त्रादि निश्चिीयते ॥४॥ अर्थ- जिस प्रकार अन्न पाषाण अगुरु और अफीम के समान पदार्थ के कुछ भाग के स्पर्श करने से, इलायची आम कसीम और जल के समान पदार्थ के कुछ अंश के स्वाद से, घी आदि के समान पदार्थ के कुछ अंश से सूंघने के, वस्त्र सरीखे पदार्थ के किसी अंश को आंख के देखने से कर्करी (झालर) आदि के शब्द श्रवण से, और मन से शास्त्र आदि के समस्त स्वरूप का निश्चय कर लिया जाता है । ४. ॐ ह्रीं अखण्डचैतन्यस्वरूपाय नमः ।
अभेदचित्स्वरूपोऽहम् ।। अन्न पाषाण अगर तगर पर्श होने पर । लायची आम्र आदि जल का स्वाद लेने पर || वस्त्र आदिक को देखने से ज्ञान होता है । मात्र हो अंश तो वस्तु का भान होता है | शुद्ध चिद्रूप से सब का ही ज्ञान होता है ।
बिना पर्श ही वस्तु सब का भान होता है ॥४॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।