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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
यह जीर्ण रूपं या शीर्ण रूप होता न कभी है अजर अमर । अविकल अविमश्वर अविकारी शाश्वत स्वरूप है अतिसुन्दर ॥
ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं नि. ।
अर्घ्यवलि चतुर्थ अधिकार
शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति कीसरलता का प्रदर्शन
(9) न. क्लेशो न धनव्ययो न गमनं दशांतरे प्रार्थना, केषांचिन्न बलक्षयो न न भयं पीड़ा परस्यापि न । सावद्यं न न रोगजन्मपतनं नैवान्यसेवा न हि.. चिद्रूपस्मरणे फलं बहु कथं तन्नाद्रियंते बुधाः ॥१॥ अर्थ- इस परम पावन चिद्रूप के स्मरण करने में न किसी प्रकार का क्लेश उठाना पड़ता है, न धन का व्यय, न देशांतर में गमन और न दूसरे से प्रार्थना करनी पड़ती है। किसी प्रकार की शक्ति का क्षय, भय, दूसरे को पीड़ा, पाप, रोग जन्म-मरण और दूसरे की सेवा का दुःख भी नहीं भोगना पड़ता, इसलिये अनेक उत्तमोत्तम फलों के धारक भी इस शुद्धचिद्रूप के स्मरण करने में हे विद्वानों! तुम क्यों उत्साह और आदर नहीं करते? यह नहीं जान पड़ता ।
१. ॐ ह्रीं क्लेशाद्युपायरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरवद्योऽहम् | गीत
क्लेश नही ।
शुद्ध चिद्रूप स्मरण में कोई कोई भी कष्ट नहीं कोई धन निवेश नहीं ॥ याचना है न किसी से गमन परदेश नहीं । शक्ति का क्षय भी नहीं पीड़ा भय रोग नहीं ॥ जन्म मरणादि नहीं पर की दासता भी नहीं । पाप का अंश भी चिद्रूप स्मरण में नहीं ॥