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अस्तित्व-अवक्तव्यनय, नास्तित्व-अवक्तव्यनय और अस्तित्व-नास्तित्व अवक्तव्यनय ७५ ___ यदि वस्तु में सातों धर्म नहीं होते तो उनका कथन भी नहीं होता, क्योंकि वाचक वाच्य को ही तो बताता है। __आत्मा में स्व की अपेक्षा अस्तित्व है, पर की अपेक्षा नास्तित्व है - इन दोनों धर्मों का प्रतिपादन क्रमशः ही हो सकता है, एक साथ नहीं - इस अपेक्षा से आत्मा अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्यधर्मवाला है। इस धर्म के नाम में तीन शब्द आये हैं; अत: उनके वाच्यरूप तीन भिन्न-भिन्न धर्म नहीं समझना, किन्तु तीनों के वाच्यरूपएक धर्म है - इसप्रकार समझना।
सप्तभंगी संबंधी सात नयों के विषयभूत अस्तित्वादि धर्म सभी पदार्थों के मूलभूत धर्म हैं। भगवान आत्मा भी एक पदार्थ है, परमपदार्थ है; अत: उसमें भी ये पाये ही जाते हैं। पर से भिन्न निज भगवान आत्मा की सम्यक् जानकारी के लिए इन सात धर्मों का जानना अत्यन्त आवश्यक है। __ अस्तित्वधर्म यह बताता है कि प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपस्वचतुष्टय से है; अत: किसी भी पदार्थ को अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए पर की या पर के सहयोग कीरंच भी आवश्यकता नहीं है। भगवान आत्मा का अस्तित्व भी स्वचतुष्टय से ही है; अतः उसे भी स्वयं की सत्ता बनाये रखने के लिए पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
नास्तित्वधर्म यह बताता है कि प्रत्येक पदार्थ में परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भावरूप परचतुष्टय की नास्ति है; अत: किसी भी परपदार्थ का कोई भी हस्तक्षेप अन्य पदार्थ में संभव नहीं है। यह भगवान आत्मा भी नास्तित्वधर्म से सम्पन्न है; अतः हमें पर के हस्तक्षेप की आशंका से व्याकुल होने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
पर का सहयोग भी एकप्रकार का हस्तक्षेप ही है। जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में पूर्णतः अभाव ही है, अप्रवेश ही है, तो फिर परस्पर सहयोग का प्रश्न ही कहाँ उठता है ?