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पृष्ठभूमि
संवेदनसिद्धत्वात्; तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानंतधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा । ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं अनंतधर्मजातं यद्यावल्लक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैकः खल्वात्मा । एतदर्थमेवात्रास्य ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ।
ननु क्रमाक्रमप्रवृत्तानंतधर्ममयस्यात्मनः कथं ज्ञानमात्रत्वम् ? परस्परव्यतिरिक्तानंतधर्मसमुदायपरिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण
स्वयमेव भवनात् ।
अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावांतःपातिन्योऽनंता: शक्तय: उत्प्लवंते ।
तात्पर्य यह है कि ज्ञान सभी प्राणियों को स्वसंवेदनरूप अनुभव में आता है । इस प्रसिद्ध ज्ञान लक्षण से उसके साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाला अनंत धर्मों के समूहरूप आत्मा प्रसाध्यमान है।
इसलिए ज्ञानमात्र में अचलित स्थापित दृष्टि के द्वारा कुछ क्रम और अक्रमरूप से प्रवर्तमान एवं उस ज्ञान के साथ अविनाभावी रूप से रहने वाला अनन्तधर्मों के समुदायरूप जो भी लक्षित होता है, पहिचाना जाता है; वह सब वास्तविक आत्मा है । यही कारण है कि यहाँ आत्मा को ज्ञानमात्र कहा गया है।
प्रश्न : अरे भाई ! जिस आत्मा में क्रम और अक्रम से प्रवर्तमान अनन्तधर्म हैं; उस आत्मा को ज्ञानमात्र कैसे कहा जा सकता है ? उसमें ज्ञानमात्रता किस प्रकार घटित होती है ?
उत्तर : परस्पर भिन्न अनंत धर्मों के समुदायरूप से परिणत एक ज्ञप्तिमात्रभावरूप स्वयं होने से यह भगवान आत्मा ज्ञानमात्रभावरूप है। यही कारण है कि उसमें ज्ञानमात्रभाव की अन्तःपातिनी अनंत शक्तियाँ उछलती हैं।
तात्पर्य यह है कि आत्मा के अनंत धर्मों में परस्पर लक्षणभेद होने पर भी प्रदेशभेद नहीं है। आत्मा के एक परिणाम में सभी गुणों का परिणमन रहता है। यही कारण है कि आत्मा के एक ज्ञानमात्रभाव में अनंत शक्तियाँ उछलती हैं, परिणमित होती हैं।"