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४७ शक्तियाँ और ४७ नय
(६) अवक्तव्यनय अवक्तव्यनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम्॥६॥ ___ तात्पर्य यह है कि भले ही वाणी से अस्तित्व और नास्तित्वधर्मों को एक साथ कहा न जा सके, पर भगवान आत्मा में उनके एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं है; क्योंकि भगवान आत्मा का एक धर्म ऐसा भी है, जिसके कारण ये धर्म एक ही आत्मा में एक साथ अविरोधपने रह सकते हैं। अस्तित्व-नास्तित्व धर्म का अर्थ ही यह है कि आत्मा का ऐसा स्वभाव है कि उसमें अस्तित्व एवं नास्तित्व विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म एक साथ रहते हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि आत्मा में विद्यमान अस्तित्व, नास्तित्व एवं अस्तित्व-नास्तित्व नामक धर्मों को जाननेवाले या कहनेवाले अस्तित्वनय, नास्तित्वनय एवं अस्तित्वनास्तित्वनय नामक तीन नय हैं ।।३-५।। __सप्तभंगी संबंधी उक्त तीन नयों की चर्चा के उपरांत अब अवक्तव्यनय
की बात करते हैं - ___"लोहमय तथा अलोहमय, डोरी व धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी व धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान-अवस्था में रहे हुए तथा संधान-अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले बाण की भाँति आत्मद्रव्य अवक्तव्यनय से युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से अवक्तव्य है॥६॥"
भगवान आत्मा के अनन्त धर्मों में अस्तित्वादि धर्मों के समान एक अवक्तव्य नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा वचनों द्वारा युगपत् सम्पूर्णत: व्यक्त नहीं किया जा सकता।
इस अवक्तव्य धर्म को विषय बनानेवाले सम्यक्श्रुतज्ञान के अंश को अवक्तव्यनय कहते हैं। शास्त्रों में यह बारम्बार आता है कि आत्मा वचन