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४७ शक्तियाँ और ४७ नय जिनागम में अभाव चार प्रकार के बताये गये हैं, जिनके नाम क्रमशः इसप्रकार हैं :- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव एवं अत्यन्ताभाव। अभावधर्म की सिद्धि करते हुए आ. समंतभद्र आप्तमीमांसा में लिखते हैं
"भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपल्वात्। सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥९॥ कार्यद्रव्यमनादि स्याद् प्राग्भावस्य निह्नवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्यप्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत्॥१०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे।
अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा॥११॥ हे भगवन ! पदार्थों का सर्वथा सद्भाव ही मानने पर अभावों का अर्थात् अभावधर्म का अभाव मानना होगा।अभावधर्म की सत्ता स्वीकार नहीं करने पर सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जावेंगे, सभी पदार्थ अनादिअनन्त हो जावेंगे, किसी का कोई पृथक् स्वरूप ही न रहेगा, जो कि आपको स्वीकार नहीं है।
प्रागभाव का अभाव मानने पर सभी कार्य (पर्यायें) अनादि हो जावेंगे। इसीप्रकार प्रध्वंसाभाव नहीं मानने पर सभी कार्य (पर्यायें) अनन्त हो जावेंगे। यदि अन्योन्याभाव को नहीं मानेंगे तो सभी दृश्यमान (पुद्गल) पदार्थ वर्तमान में एकरूप हो जावेंगे और अत्यन्ताभाव के नहीं मानने पर सभी पदार्थों (द्रव्यों) के त्रिकाल एकरूप हो जाने से किसी भी द्रव्य या पर्याय का व्यपदेश (कथन) भी न बन सकेगा।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि भाव (अस्तित्व) के समान अभाव (नास्तित्व) भी वस्तु का एक सद्भावरूप धर्म है।
यद्यपि नास्तित्वधर्म को परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा समझाया जाता है; तथापि वह पर का धर्म नहीं, भगवान आत्मा का ही धर्म है; उसकी सत्ता का आधार भी पर नहीं, निज भगवान आत्मा ही