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________________ अस्तित्व, नास्तित्व और अस्तित्व-नास्तित्व ६३ अपेक्षा नास्तित्ववाला है एवं अस्तित्वनास्तित्वनय से लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान - अवस्था में रहे हुए और संधान - अवस्था में नहीं रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख उसी बाण की भाँति क्रमशः स्व-पर- द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा अस्तित्वनास्तित्व वाला है।। ३-५॥” भगवान आत्मा में विद्यमान अनन्तधर्मों में एक अस्तित्व नामक धर्म भी है, जो भगवान आत्मा के अस्तित्व को टिकाए रखता है । अस्तित्व नामक धर्म के कारण ही भगवान आत्मा सत्तास्वरूप है। यह अस्तित्व नामक धर्म अकेले भगवान आत्मा में ही नहीं, सभी पदार्थों में है। सभी पदार्थों में अपना-अपना अस्तित्वधर्म है और वे सभी पदार्थ अपने-अपने अस्तित्व धर्म से ही टिके हुए हैं। किसी भी पदार्थ को अपने अस्तित्व को टिकाये रखने के लिए किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि यह बात पूर्णतः सत्य है कि सभी पदार्थों में अपना-अपना अस्तित्वधर्म है; तथापि यहाँ आत्मा के अस्तित्व की बात चल रही है । यहाँ डोरी और धनुष के मध्य स्थित, संधानदशा में रहे हुए, लक्ष्योन्मुख, लोहमय बाण का उदाहरण देकर भगवान आत्मा के अस्तित्वधर्म को समझाया गया है। जिसप्रकार कोई बाण स्वद्रव्य की अपेक्षा से लोहमय है, स्वक्षेत्र की अपेक्षा से डोरी और धनुष के मध्य स्थित है, स्वकाल की अपेक्षा से संधानदशा में है अर्थात् धनुष पर चढ़ाकर खँची हुई दशा में है और स्वभाव की अपेक्षा से लक्ष्योन्मुख है अर्थात् निशान की ओर है। इसप्रकार जैसे बाण स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से अस्तित्व वाला है, उसीप्रकार भगवान आत्मा अस्तित्वनय से अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववाला है ।
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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