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जीवत्वशक्ति
१. जीवत्वशक्ति आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः ।
अब आचार्य अमृतचन्द्र जीवत्वशक्ति के बारे में लिखते हैं, जिसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है -
आत्मद्रव्य के हेतुभूत चैतन्यभाव को धारण करना है लक्षण जिसका, वह जीवत्वशक्ति है।
इस जीवत्वशक्ति के बीज समयसार की दूसरी गाथा में विद्यमान हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि जीव का लक्षण चेतना है। चेतना ही जीव के भावप्राण हैं और उसके कारण ही इस जीव नामक पदार्थ का जीवन है। पंचास्तिकाय में निश्चय से जीव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो जीता था, जीता है और जियेगा; वही जीव है।
तात्पर्य यह है कि यह जीव अपने जीवन के लिए परपदार्थों पर निर्भर नहीं है। इसमें चैतन्यभाव को धारण करनेवाली जीवत्वशक्ति है, जीवनशक्ति है; इसके कारण ही यह सदा जीवित रहा है अर्थात् अबतक जीवित रहा है, अभी जीवित है और भविष्य में भी जीवित रहेगा।
ध्यान रहे, इस जीवत्वशक्ति के कारण ही आत्मवस्तु का नाम जीव पड़ा है। यह जीव न तो आहार- पानी से जीता है और न आयुकर्म के उदय से ही जीता है; इसके जीवन का आधार तो जीवत्वशक्ति है ।
सांसारिक अवस्था में देह के संयोगरूप जीवन में भी आहार- पानी बहिरंग निमित्त और आयुकर्म का उदय अन्तरंग निमित्त है; उपादान तो जीव की पर्यायगत योग्यता ही है।
इस जीव को मरणभय ही सर्वाधिक परेशान करता है; इसलिए आचार्यदेव ने सबसे पहले जीवत्वशक्ति की चर्चा करके इसके मरणभय को दूर करने का सफल प्रयास किया है।