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________________ १०७ ईश्वरनय और अनीश्वरनय (३४-३५) ईश्वरनय और अनीश्वरनय ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्त॥३४॥ अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्डीरववत्स्वातन्त्र्यभोक्तृ ॥३५॥ प्राप्ति होती ही है। तात्पर्य यह है कि परमपारिणामिक भावरूपत्रिकाली धुव आत्मा को केन्द्र बनाकरजब श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र परिणमित होते हैं; तब ज्ञानावरणादि कर्मों का अभाव होकर अनन्तसुखस्वरूप सिद्धदशा प्रगट हो जाती है और इसमें ही उक्त आठ धर्म या आठ नय व पंच समवाय समाहित हो जाते हैं ।।३२-३३ ।। इसप्रकार पुरुषकारनय और दैवनय की चर्चा करने के उपरान्त अब ईश्वरनय और अनीश्वरनय की चर्चा करते हैं "आत्मद्रव्य ईश्वरनय से धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक के समान परतंत्रता को भोगनेवाला है और अनीश्वरनय से हिरण को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जाने वाले सिंह के समान स्वतंत्रता को भोगनेवाला है।३४-३५॥" ___ मातृहीन बालकों को अपना दूध पिलाकर आजीविका करनेवाली महिलाओं को धायमाता कहा जाता है। पुराने समय में ऐसी अनेक धायमातायें गाँव-गाँव में दुकान खोलकर बैठती थीं। जिन माताओं के दूध कम होता था, वे मातायें अपने बालकों को या मातृहीन बालकों को उनके परिवारवाले लोग ऐसी धायमाताओं की दुकान पर ले जाकर यथासमय दूध पिला लाते थे। ___ ऐसे मातृहीन बालक या कम दूधवाली माताओं के बालक जब अपने परिवारवालों के साथ यात्रा पर जा रहे हों, तो उन्हें भूख मिटाने के लिए रास्ते में आनेवाले गाँवों में होनेवाली धायमाताओं की दुकानों पर निर्भर रहना पड़ता था, जिसमें उन्हें भारी पराधीनता रहती थी। प्रथम तो अपनी माता का दूध पीने जैसी स्वतन्त्रता धायमाता के दूध
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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