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नय-रहस्य 3. अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषयभूत भेद-कल्पना, उत्पाद-व्यय तथा कर्मोपाधि में से दृष्टि हटाने के लिए ही उन्हें गौण करके व्यवहारनय का विषय कहा जाता है।
पर्यायार्थिकनय के विषय में निश्चयनय के प्रयोग -
किसी भी पर्याय के स्व-स्वामी, कर्ता-कर्म आदि का यथार्थ अथवा स्वाश्रित निरूपण, निश्चयनय का विषय कहा जाता है। जैसे,
अ. निश्चय से रागादि भावों का कर्ता आत्मा स्वयं है। ब. निश्चय से शुभभाव बन्ध का कारण है।
स. निश्चय से शरीरादि पर-पदार्थों की क्रिया का कर्ता पुद्गल द्रव्य ही है।
पर्यायार्थिकनय के विषय में व्यवहारनय के प्रयोग - अ. व्यवहार से रागादिभावों का कर्ता द्रव्यकर्म या नोकर्म है। ब. व्यवहार से शुभराग, मुक्ति का मार्ग है। स. व्यवहार से शरीरादि पर-पदार्थों की क्रिया का कर्ता आत्मा है।
द. अखण्ड वस्तु में किसी भी प्रकार का भेद करना, सद्भूत- . व्यवहारनय का विषय भी है और पर्यायार्थिकनय का विषय भी है।
इसप्रकार द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयों की विषयभूत वस्तु का कथन, निश्चय-व्यवहारनयों की शैली में भी उपलब्ध होता है; अतः निश्चय-व्यवहारनयों की आधारभूमि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय होने से ये उनके हेतु कहे जाते हैं।
उक्त कथन में यह आशय भी गर्भित है कि आगम अध्यात्म का हेतु है, क्योंकि आत्मा का साक्षात् हितकारी तो अध्यात्म ही है तथा आगम, अध्यात्म का आधार है, कारण है या साधन है; अतः