SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 'नय-रहस्य और द्रव्य बिना पर्याय नहीं होती; अतः नय परस्पर सापेक्ष होते हैं - इस कथन का आशय यह भी है कि वस्तु में निश्चय-व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों के विषयभूत धर्म साथ-साथ होते हैं, परन्तु नयों की सापेक्षता का अर्थ मात्र साथ रहने तक ही सीमित नहीं है। विवक्षित धर्म को मुख्य करना अर्थात् उस धर्म के दृष्टिकोण से वस्तु को देखना ही अपेक्षा' है और इसी का नाम 'नय' है। मुख्य करने से आशय उस धर्म की दृष्टि से वस्तु को देखना। जैसे, आत्मा एक, अभेद, नित्य, ध्रुव है। यदि ये विशेषण द्रव्यदृष्टि से अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा या द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा कहे जायें तो सम्यक्-एकान्त. होगा तथा द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा न लगाई जाए तो वस्तु को सर्वथा एक, अभेद, नित्य मानने का प्रसंग आएगा और अनित्यादि धर्मों के निषेध होने का प्रसंग आ जाने से वह कथन मिथ्या-एकान्त या नयाभास कहलाएगा। इसीप्रकार आत्मा को अनेक, अनित्य तथा भेदरूप कहना, पर्याय की अपेक्षा अर्थात् पर्याय को मुख्य करके ही सम्भव है; अन्यथा द्रव्यस्वभाव का लोप हो जाने से आत्मा को सर्वथा अनित्य माना जाएगा, जिससे मिथ्या-एकान्त या नयाभास का प्रसंग आएगा। इसप्रकार किसी अपेक्षा से कहो या किसी धर्म को मुख्य करना कहो - एक ही बात है। इसमें दूसरी अपेक्षा की स्वीकृतिपूर्वक गौणता भी शामिल है। इसीलिए सापेक्षनय ही सम्यक् कहे गए हैं और निरपेक्षनय अर्थात् बिना अपेक्षा वस्तु को सर्वथा एक धर्मरूप कहनेवाले नय, मिथ्या और निरर्थक कहे गये हैं। मिथ्या नयों से वस्तु का यथार्थ निर्णय नहीं होता, इसलिए उन्हें दुर्नय और निरर्थक भी कहा जा सकता है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy