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नयज्ञान की आवश्यकता नय विकल्प नहीं रहते, फिर आत्मानुभूति के लिए नयों को जानने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - श्रुतभवनदीपक नयचक्र में आचार्य देवसेन ने इसी सन्दर्भ में लिखा है कि यद्यपि आत्मा स्वभाव से नयपक्षातीत है; तथापि वह नयज्ञान के बिना पर्याय में नयपक्षातीत नहीं हो सकता, क्योंकि यह आत्मा, अनादिकालीन कर्मवश असत्कल्पनाओं में उलझा हुआ है; अतः सत्कल्पनारूप अर्थात् सम्यक् विकल्पात्मक नयों का स्वरूप कहते हैं।
प्रश्न - असत्कल्पना और सत्कल्पना से क्या आशय है? .
उत्तर - अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से होनेवाली मिथ्या मान्यताएँ ही असत्कल्पनाएँ हैं; अथवा प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों के बारे में विपरीत मान्यताएँ असत्कल्पनाएँ हैं। समयसार, मोक्षमार्गप्रकाशक, योगसार, छहढाला आदि अनेक ग्रन्थों में इन मिथ्या मान्यताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। . जिनागम के अभ्यास से जो विकल्पात्मक यथार्थ तत्त्वनिर्णय होता है, वही सत्कल्पना है। यह निर्णय, वस्तु-स्वरूप के अनुसार होने से सत् कहा गया है और निर्विकल्प अनुभूति से रहित मात्र विकल्पात्मक ज्ञान में होने से इसे कल्पना कहा गया है।
प्रश्न - सत्कल्पना और निर्विकल्प अनुभूति में क्या अन्तर है?
उत्तर - जिनागम के अभ्यास के निमित्त से विकल्पात्मक भूमिका में होनेवाला यथार्थ तत्त्व-निर्णय सत्कल्पना है। इसमें मन के अवलम्बन से प्रमाण-नय द्वारा वस्तु-स्वरूप का अथवा सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करने के बल से स्वरूप की रुचि बढ़ते-बढ़ते उपयोग अन्तर्मुख हो जाता है और बुद्धिपूर्वक विकल्प भी शमित हो जाते हैं; यही निर्विकल्प अनुभूति अर्थात् पक्षातिक्रान्त दशा है।