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नयज्ञान की आवश्यकता
ही; अतः नयों का प्रयोग किये बिना आत्म-स्वरूप का निर्णय कैसे होगा? रही बात पण्डिताई की, तो भले कोई वक्ता हो या न हो, वस्तुस्वरूप का निर्णय करना तो प्रत्येक आत्मार्थी के लिए अनिवार्य है; और मैं पूछता हूँ कि सच्ची पण्डिताई क्या बुरी चीज है ?
आत्मानुभवी विद्वानों की प्रशंसा करते हुए तो पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी भी बारम्बार कहते हैं - दिगम्बरो ना पण्डितो पण गजब काम कर्तुं छे।
पाण्डे राजमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, पण्डित टोडरमलजी, पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा, पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल आदि विद्वानों के प्रति उनके उद्गार, आज भी उनके प्रवचनों की सी. डी. आदि में उपलब्ध हैं। अरे! प्राचीन विद्वानों की बात तो दूर, पाण्डित्य के अभिमान पर प्रहार करते हुए भी, वे कभी - कभी अपने शिष्यविद्वानों की प्रशंसा करके उन्हें प्रोत्साहित करते हुए सुने जा सकते हैं।
मात्र शास्त्र - ज्ञान की निरर्थकता बताते हुए भी शास्त्राभ्यास की प्रेरणा देना तथा पण्डिताई के अहं पर प्रहार करते हुए भी पण्डितों के कार्य की उन्मुक्त प्रशंसा करना - ऐसा सन्तुलित दृष्टिकोण आज पूज्य गुरुदेवश्री के चिन्तन की ही प्रमुख विशेषता है।
जिनागम में भी अनेक प्रकार के परस्पर विरोधी दिखनेवाले कथन उपलब्ध हैं। कहीं आत्मा को सिद्ध- समान ज्ञानानन्दस्वभावी कहा गया है तो कहीं उसे अज्ञानी, मूढ़ और दुःखी कहा गया है। कहीं उसे अभेद, " अखण्ड, त्रिकाली, चिद्घनमात्र आदि बता कर एकरूप कहा गया है तो कहीं उसे मनुष्य, तिर्यंच, रागी -द्वेषी अथवा गुणस्थान, मार्गणास्थान के भेदों से अनेकरूप कहा गया है।
यदि इन कथनों की अपेक्षा और प्रयोजन नहीं समझेंगे तो इनका वास्तविक मर्म कैसे जान पाएँगे? और इनका मर्म जाने बिना आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय तथा अनुभव कैसे हो सकेगा ? अतः यथार्थ
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