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एकान्तों के आग्रह से जो, ग्रस्त स्व-पर के बैरी हैं। कर्म शुभाशुभ पुनर्जन्म की, अव्यवस्था अति गहरी है।।8।। वस्तु यदि एकान्त भावमय, हो अभाव नहिं किंचित् भी। सब सर्वात्मक, अस्वरूपी, बिन आदि अन्त, स्वीकार नहीं।।।। यदि नहिं मानें प्रागभाव तो, कार्यारम्भ नहीं होगा। यदि प्रध्वंस-अभाव न मानें, अन्त कार्य का नहिं होंगा।।10।। यदि अन्योन्याभाव न हो तो, एकरूप हों सब पुद्गल। यदि अत्यन्ताभाव न मानें, सर्व द्रव्य सबमय तिहुँकाल।।11।। यदि अभाव सर्वथा वस्तु का, भावों का सर्वथा निषेध। अप्रामाणिक हों ज्ञान-वचन, निज-पर मण्डन-खण्डन कैसे?||12।। द्वय एकान्तों में विरोध है, स्याद्वाद विद्वेषी के। यदि सर्वथा अवाच्य कहें तो, वस्तु वाच्य इस कणी से।।13।। तुम्हें इष्ट है वस्तु कथंचित्, सत्ता और असत्ता रूप। उभय कथंचित् नय-पद्धति से, नहीं सर्वथा वस्तु-स्वरूप।।14।। द्रव्य, क्षेत्र, निज काल, भाव से, सत् पदार्थ नहिं माने कौन।
और असत् पर द्रव्य आदि से नहिं माने अव्यवस्थित भौन।।15।। यदि क्रम से कहना चाहें तो, वस्तुरूप है भाव-अभाव। अक्रम से है अवक्तव्य यह, शेष भंग स्वापेक्ष स्वभाव।।16।।
सोरठा अनेकान्तमय वस्तु, कहते हैं जिनराज सब। सद्धर्म-वृद्धिरस्तु, इसके सम्यग्ज्ञान से।।