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आचार्य समन्तभद्र स्वामी कृत देवागम - स्तोत्र
(हिन्दी पद्यानुवाद)
दोहा
करें आप्त-मीमांसा, समन्तभद्राचार्य । प्रस्तुत है अनुवाद यह, भविजन को हितकार ।।
- वीरछन्द.
देवागमन तथा नभ में गति, छत्र चँवर अनुपम छविमान । मायावी जन में भी दिखते, मात्र इसलिए नहीं महान ।। 1 ।।
बाह्यान्तरे अतिशय तन के इसीलिए प्रभु इस वैभव से
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भी, देवों में देखे जाते ।
नहीं पूज्यता को पाते । । 2 H
आगम के आधार तथा, जो धर्मतीर्थ के संचालक । उनमें है विरोध, आप्त सब नहीं, एक हो
प्रतिपालक ॥। 3 ॥
दोष और आवरण हानि, अतिशायन हेतु दिखलाता । अन्तर्बाह्य मल-क्षय भी है, ध्यान- अग्नि से हो जाता ||4||
सूक्ष्म और दूरस्थ अन्तरित, विशद ज्ञानवर्ती होते । हैं अनुमेय यथा अग्न्यादि, अतः सर्वज्ञ सिद्ध होते ||5||
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युक्ति - शास्त्र अविरोधी वचनों से, हे जिन! तुम ही निर्दोष ।
तुम्हें इष्ट जो वह अविरोधी, प्रत्यक्षादि न देते दोष ||6|| प्रभु के मत - अमृत से बाहर, जो एकान्त सर्वथा वाद । अरे! दग्ध आप्ताभिमान से, इष्ट तत्त्व जो उसमें बाध || 7 ||