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सप्तभंग
जिसप्रकार नय, जैनदर्शन के मौलिक चिन्तन का प्रतिफलन है, उसीप्रकार सप्तभंग, अनेकान्त और स्याद्वाद भी जैनदर्शन के मौलिक चिन्तन के परिचायक हैं। अन्य दर्शनों में यह चिन्तन सर्वथा अनुपलब्ध है। यहाँ सप्तभंगी प्रकरण पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है।
वस्तुस्वरूप को समझाने के लिए ये सप्तभंग अत्यन्त उपयोगी हैं। सप्तभंगी तरंगिणी, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, आप्तमीमांसा, स्याद्वाद मंजरी, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में इस विषय की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, अतः इन ग्रन्थों का गहन अध्ययन-मनन अवश्य करना चाहिए।
उक्त ग्रन्थों के अलावा जैन काव्य जगत् में भी इस प्रकरण का उल्लेख किया गया है । कविवर द्यानतरायजी देव-शास्त्र-गुरु पूजन की जयमाला में लिखते हैं
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सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग ।
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इसीप्रकार कविवर भागचन्दजी जिनवाणी स्तुति में लिखते हैं - सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी । सन्त-चित् मराल-वृन्द, रमें नित्य ज्ञानी ।।
हमारे लोक-जीवन में जितनी गहराई से नय-पद्धति का प्रयोग