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अनेकान्त - स्याद्वाद
स्याद्वाद शैली में आत्मा को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य कहा जाता है, परन्तु यह कहना असत्य है कि आत्मा निश्चय से नित्य है और व्यवहार से अनित्य । अनित्यता भी नित्यता के समान वस्तु का स्वभावभूत धर्म है। अभेद, एक, सत् आदि के समान भेद, अनेक, असत् आदि भी वस्तु के स्वभावभूत धर्म हैं; अतः उन्हें व्यवहार अर्थात् उपचरित कैसे कहा जा सकता है ?
हाँ, यदि यहाँ उक्त उदाहरण में हम निश्चय - व्यवहारनय की जगह द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिकनय का प्रयोग करें तो स्याद्वाद का सार्थक प्रयोग होगा अर्थात् आत्मा द्रव्यार्थिकनय या द्रव्यदृष्टि से नित्य है और पर्यायार्थिकनय या पर्यायदृष्टि से अनित्य है। इसप्रकार सभी नय दृष्टियों में कथंचित् का प्रयोग तो सम्भव है, परन्तु सर्वत्र कथंचित् की जगह अलग-अलग नयदृष्टियाँ, प्रमाणदृष्टियाँ आदि लागू होती हैं।
इसी प्रकार एक महिला को पिता, पुत्र और पति की अपेक्षा क्रमशः कथंचित् पुत्री, कथंचित् माँ और कथंचित् पत्नी कहा जाएगा, परन्तु क्या वह कुछ अंशों में माँ और कुछ अंशों पत्नी या पुत्री आदि कही जा सकती है ? नहीं! वह जिस अपेक्षा माँ है, उस अपेक्षा सम्पूर्ण माँ ही है। इसी प्रकार वह पिता और पति की अपेक्षा सम्पूर्ण पुत्री और सम्पूर्ण पत्नी ही है। उस महिला के माँ, पुत्री आदि धर्मों में निश्चय-व्यवहारनयों का प्रयोग करके क्या यह कहना उचित है कि वह निश्चय से माँ है और व्यवहार से पुत्री आदि ! परन्तु ऐसा प्रयोग तो ठीक नहीं है, क्योंकि किसी द्रव्य-भाव का नाम निश्चय और किसी द्रव्य-भाव का नाम व्यवहार - ऐसा नहीं है, अपितु एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप में निरूपित करना, निश्चय और अन्य स्वरूप में निरूपित करना, व्यवहार है।
इस उदाहरण में हम ऐसा तो कह सकते हैं कि निश्चय से तो कोई