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________________ नय - रहस्य निश्चय-व्यवहारनय, उस स्याद्वाद के नय नामक अंग के अन्तर्गत एक प्रकार के भेद हैं। इनके प्रयोगों में अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। 366 स्याद्वाद शैली का प्रयोग, मुख्यतया सर्वथा एकान्त मतों का खण्डन करते हुए वस्तु के अनेकान्त स्वरूप की सिद्धि के लिए किया जाता है और निश्चय - व्यवहारनयों का प्रयोग, वस्तु के यथार्थ और उपचरित स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए किया जाता है। यद्यपि दोनों शैलियों में सापेक्ष कथन किया जाता है, निरपेक्ष कथन, मिथ्या-एकान्तरूप होते हैं। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथंचित्' अर्थात् 'किसी अपेक्षा' होता है, अतः निश्चय - व्यवहारनय के कथन भी किसी अपेक्षा से किये जाते हैं, अतः उनमें भी 'कथंचित्' शब्द का प्रयोग करने में कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं आता, फिर भी दोनों शैलियों के प्रयोगों को एक-दूसरे में मिलाने में अड़चन होने लगती है। यहाँ इस प्रकार के प्रयोग के कुछ उदाहरणों का परीक्षण किया जा रहा है - वृहद्रव्यसंग्रह में आत्मा को निश्चय से अमूर्तिक तथा व्यवहार से मूर्तिक कहा गया है । स्याद्वाद शैली में यही कहा जाएगा कि आत्मा कथंचित् अमूर्तिक है और कथंचित् मूर्तिक है। यहाँ स्याद्वाद शैली में आत्मा को कथंचित् मूर्तिक कहने में लोगों को संकोच होता है, क्योंकि प्रायः लोग कथंचित् का अर्थ आधाआधा या कुछ प्रतिशत समझते हैं, परन्तु 'कथंचित्' का अर्थ कुछ प्रतिशत बिलकुल भी नहीं है। 'कथंचित्' शब्द का अर्थ 'किसी अपेक्षा' होता है। व्यवहारनय भी संयोग की अपेक्षा आत्मा को मूर्तिक कहता है, अतः 'आत्मा कथंचित् मूर्तिक है' - ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए ।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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