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. नय-रहस्य धर्म होने से वस्तु कायम रहती है, अन्यथा वस्तु के नष्ट हो जाने का प्रसंग आता है, परन्तु जिन धर्मों के एक साथ रहने में सर्वथा विरोध है, यदि वे वस्तु में एक साथ रहेंगे तो वस्तु ही नष्ट हो जाएगी। जरा सोचिए कि आत्मा जड़ भी हो और चेतन भी हो तो आत्मा का स्वरूप क्या होगा? अतः आत्मा में चेतनत्व और अचेतनत्व - ये दोनों धर्म, एक साथ नहीं रह सकते, उसमें चेतना की अस्ति और अचेतना की नास्ति ही हो सकती है।
प्रश्न 13 - क्या स्याद्वाद सभी धर्मों का समन्वय करता है?
उत्तर - स्याद्वाद का अर्थ है - किसी अपेक्षा से कथन करना, अतः वस्तु में विद्यमान परस्पर विरोधी धर्मों को सापेक्ष दृष्टि से कहना ही सभी धर्मों का समन्वय है।
दुर्भाग्यवश आजकल स्याद्वाद के नाम पर वस्तु के धर्मों की सिद्धि करने के बजाय सभी सम्प्रदायों को सच्चा मानने का फैशन चल गया है। अनेक विद्वान् बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि अपनी-अपनी अपेक्षा सभी धर्म सच्चे हैं। कुछ लोग तो यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि सब धर्मों को मिला दो - जैनधर्म बन जाएगा, लेकिन यह सब पल्लवग्राही पाण्डित्य का परिणाम है।
जरा सोचिए, क्या सौ असत्य मिलकर सत्य बन सकते हैं? क्या सर्वथा एकान्तवादी 363 मतों को मिलाकर जैनधर्म बना है या जैन शासन में कथित वस्तु-व्यवस्था के एक-एक पक्ष को सर्वथा ग्रहण करके वे मिथ्यामत जन्मे हैं? यदि सभी मान्यताएँ किसी अपेक्षा सत्य हैं तो सत्य और असत्य में क्या अन्तर है - यह विचारणीय हो जाता है? क्या रागी और वीतरागी, दोनों आदर्श हो सकते हैं? राग और वीतराग, दोनों को धर्म मानना, क्या विष और अमृत का समन्वय करने के समान नहीं है? अतः असत्यों का समन्वय करने के बजाय