SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 325 सैंतालीस नय अलक्ष्योन्मुख - ऐसे उसी बाण की भाँति आत्मद्रव्य, अस्तित्वअवक्तव्यनय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्वपर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववान् अवक्तव्य है। __अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य नहीं स्थित, संधानदशा में न रहे हुए, अलक्ष्योन्मुख एवं लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, सन्धानदशा में रहे हुए तथा सन्धानदशा में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख - ऐसे उसी बाण की भाँति आत्मद्रव्य, नास्तित्वअवक्तव्यनय से पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्वपर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववान् अवक्तव्य है। लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य स्थित, संधानदशा में रहे हुए, लक्ष्योन्मुख; अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य नहीं स्थित, सन्धानदशा में नहीं रहे हुए, अलक्ष्योन्मुख; एवं लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य नहीं स्थित, सन्धानदशा में रहे हुए तथा सन्धानदशा में न रहे हुए, लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख - ऐसे उसी बाण की भाँति आत्मद्रव्य, अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्वनास्तित्ववान् अवक्तव्य है। अवक्तव्यनय के बाद इन तीन नयों की विस्तृत व्याख्या दुर्लभ है, क्योंकि इनके प्रयोग बहुत कम पाये जाते हैं। अस्तित्व-अवक्तव्यधर्म से तात्पर्य है कि आत्मा का अस्तित्व बताया जाने पर भी नास्तित्व तथा अन्य नित्य-अनित्यादि धर्म नहीं कहे गए, अतः वह अस्तित्ववान्-अवक्तव्यरूप योग्यतावाला है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy