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नय-रहस्य में कथित एक वाक्य में यह बात बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त होती है, वह वचन है -
स्वाऽवभासनाऽशक्तस्य पराऽवभासकत्वाऽयोगात्।
अर्थात् जो स्व-अवभासन में असमर्थ है, वह पर का अवभासन नहीं कर सकता। परीक्षामुख सूत्र, अध्याय 1 के स्वाऽपूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्, कर्मवत् कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः तथा घटमहमात्मना वेद्मि - इन सूत्रों से भी यह बात सिद्ध होती है। अभेद में भेद किये बिना उसका कथन नहीं हो सकता, इसलिए यह कहना पड़ता है कि ज्ञान अपने में ज्ञेयाकारों को जानता है। ज्ञेयाकार तथा उन्हें जाननेवाले ज्ञान को एक बतानेवाली मुमुक्षु समाज में प्रचलित आध्यात्मिक भजन की यह पंक्ति ध्यान देने योग्य है -
--ज्ञेयाकार ज्ञान में भी कलाकार ज्ञान है।
ज्ञान में जो ज्ञान जाने, वही भगवान है।। ज्ञान का स्व-परप्रकाशक स्वभाव अत्यन्त गम्भीर और उपयोगी विषय है, जिस पर पृथक् विचार-विश्लेषण अपेक्षित है। यहाँ तो मात्र ज्ञाननय के सन्दर्भ में यह आवश्यक स्पष्टीकरण किया गया है, जिसे समझकर अपने ज्ञायकस्वभाव का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है।
अभ्यास-प्रश्न 1. अर्थात्मक, शब्दात्मक और ज्ञानात्मक वस्तु का स्वरूप और उपयोगिता
स्पष्ट कीजिए। 2. अर्थनय और ज्ञाननय के सन्दर्भ में ज्ञान के स्व-परप्रकाशक स्वभाव की विवेचना कीजिए।
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