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________________ व्यवहारनय के सम्बन्ध में अन्यत्र भी यह कहा गया है - 'अबुधस्य बोधनार्थं, मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम् ।" अथवा 'व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय” अर्थात् वह व्यवहारनय अज्ञानीजनों / मन्दबुद्धियों को समझाने के लिए कहा गया है। यही कारण है कि व्यवहारनय को वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने वाला नहीं माना जाता, जबकि निश्चयनय को यथार्थ वस्तुस्वरूप को समझाने वाला माना गया है। इसी प्रकार द्रव्यांर्थिकनय के दस भेदों में परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय को परिभाषित करते हुए श्रुतभवनदीपक नयचक्र में कहा है कि यह नय, वस्तु के भाव को शुद्ध, अशुद्ध और उपचार की विवक्षाओं से रहित ग्रहण करता है । यहाँ इस नय के विषय को शुद्धद्रव्यार्थिकनय के तीन भेदों से भी रहित कहा हैं। तात्पर्य यह है कि शुद्ध कहने में भी अशुद्धता से रहितपने की अपेक्षा आती है । जैसे, कर्मोंपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय में कर्मोपाधि की निरपेक्षता में आत्मा की शुद्धता को ग्रहण किया गया है। . सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय में उत्पाद - व्यय को गौण करके शुद्ध सत्ता को ग्रहण करने की अपेक्षा आती है। इसी प्रकार तीसरे भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय में भेदकल्पनाओं से निरपेक्षता की अपेक्षा आत्मा की शुद्धता ज्ञात होती है; इसी कारण परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय को शुद्ध भी नहीं कहा है । अन्त में कहा है कि इस परमभावग्राही [ परमशुद्ध ] द्रव्यार्थिकनय को मोक्ष के अभिलाषियों को शुद्ध ध्यान करने के प्रयोजन से अवश्य जानना चाहिए । इस नय के सम्बन्ध में कुछ अन्य विवक्षाओं को भी श्रुतभवन 1. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लोक 6 3. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 45 24 2. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, 11 /8 4. वही, पृष्ठ 45 नय - रहस्य
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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